विश्व भर में हर साल 20 फरवरी के दिन यह दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र द्वारा साल 2007 में की गई थी। वहीं साल 1995 में कोपेनहेगन, डेनमार्क में सोशल डेवलपमेंट के लिए विश्व शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस शिखर सम्मेलन में 100 से अधिक राजनीतिक नेताओं ने गरीबी, पूर्ण रोजगार के साथ-साथ लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने का लक्ष्य रखा था।
इसके अलावा समाज के लिए कार्य करने के लक्ष्य को हासिल करने का उद्देश्य भी इस आयोजन में रखा गया था। जिसके बाद साल 2007 में 26 नवंबर के दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा ने कोपेनहेगन में हुए इस शिखर सम्मेलन के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 20 फरवरी के दिन को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के तौर पर मनाने की घोषणा कि थी। और पूरी दुनिया में साल 2009 के 20 फरवरी के दिन सबसे पहले इस दिवस को मनाया गया था।
विश्व सामाजिक न्याय दिवस 2021 कीथीम
हर साल “वर्ल्ड सोशल जस्टिस डे” के लिए थीम निर्धारित की जाती है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस साल 2021 में विश्व सामाजिक न्याय दिवस” का थीम रखा गया है “A Call for Social Justice in the Digital Economy” अथवा “डिजिटल अर्थव्यवस्था में सामाजिक न्याय के लिए एक बुलावा” . बीते साल 2020 में सामाजिक न्याय दिवस का थीम रखा गया था- “सामाजिक न्याय प्राप्ति की दिशा में असमानता अन्तराल को समाप्त करना” (Closing the Inequalities Gap to Achieve Social Justice)
विश्व सामाजिक न्याय दिवस का उद्देश्य
दुनिया भर में यह दिवस मनाने का उद्देश्य यही है की विश्व के हर एक देश में हर एक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से न्याय प्राप्त हो और सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिले।
“विश्व सामाजिक न्याय दिवस” के इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए और लोगों के बीच इस दिन के महत्व के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए संयुक्त राष्ट्र (United Nations) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम कार्यालय (International Labor Office) एक साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण कार्य भी कर रहे हैं। दुनिया के लगभग हर देश में हर साल विश्व सामाजिक न्याय दिवस को मनाया जाता है और सामाजिक न्याय के प्रति अपने देश के लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने का कार्य किया जाता है।
विश्व सामाजिक न्याय दिवस की शुरुआत
“विश्व सामाजिक न्याय दिवस” की स्थापना 26 नवंबर साल 2007 में हुई थी, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly) ने यह घोषणा कीया था कि महासभा के 63वें सत्र से 20 फरवरी के दिन “वर्ल्ड सोशल जस्टिस डे” के रूप में मनाया जाएगा।
समाज में फैले भेदभाव और असमानता के कारण ही कई बार हालात इतने बुरे हो जाते है कि मानवाधिकारों का हनन भी होने लगता है। इसी तथ्य को में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने 20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। और साल 2009 से इस दिवस को विश्व भर में सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों के द्वारा मनाया जाता है। हालांकि 20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाने का फैसला साल 2009 में ही हो गया था। लेकिन इसका मूल क्रियांवयन साल 2009 से शुरू किया गया।
आज भी भारत में कई लोग अपनी कई मूल जरुरतों के लिए न्याय प्रकिया को नहीं जानते जिसके अभाव में कई बार उनके मानवाधिकारों का हनन होता है और उन्हें अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। आज भारत में गरीबी, महंगाई और आर्थिक असमानता हद से ज्यादा बढ़ गई है, भेदभाव भी अपनी सीमा के चरम पर है ऐसे में सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय बना हुवा है।

भारत के सविधान को बनाते समय देश में सामाजिक न्याय का खासकर ध्यान रखा गया था। वहीं इस समय हमारे देश के सविधान में कई ऐसा प्रावधान मौजूद हैं, जो कि सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं। आइए जानते हैं सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए लागू किए गए कुछ नियमों के बारे में —
- भारतीय संविधान में “अनुच्छेद 15” के अनुसार देश में धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को निषिद्ध करता है।
- “अनुच्छेद 17” के अनुसार छुआछूत का अंत करते हुए इसके किसी भी रूप में आचरण को दंडनीय अपराध करार दिया गया है।
- अनुच्छेद 14″ में सभी नागरिकों को कानून की नजरों में बराबर मान्यता देते हुए समान कानूनी संरक्षण देने की व्यवस्था करता है।
भारतीय कानून में एससी(SC)/एसटी(ST) का अपमान करने, जातिसूचक टिप्पणी करने या सामाजिक/आर्थिक बहिष्कार करने पर 6 महीनें से 5 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। - भारतीय संविधान के “अनुच्छेद 23” के अनुसार मानव तस्करी और बंधुआ मजदूरी को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
- “अनुच्छेद 24” के तहत किसी फैक्टरी, उद्योग आदि जैसे क्षेत्रों में 14 साल से कम उम्र के बच्चों की नियुक्ति प्रतिबंधित की गई है।
- “अनुच्छेद 21″(A) के तहत 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान रखा गया है।
कानून में व्यवस्था
- बाल श्रम कानून में जो दोषी होगा उसे दो साल तक की जेल और 50 हजार रुपए तक के जुर्माने की सजा देने का प्रावधान रखा गया है। और बंधुआ मजदूरी (उन्मूलन) अधिनियम में बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास को लेकर कई प्रावधान है।
- “अनुच्छेद 39″(क) व 39(घ) में महिलाओं को पुरुषों के समान जीविका के अवसर और वेतन देने की व्यवस्था।
- “अनुच्छेद 243″(घ) के तहत देश की सभी पंचायती राज संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है।
- “अनुच्छेद 42” में महिलाओं के लिए कामकाज के उचित वातावरण/शर्तों की व्यवस्था करने और मातृत्व राहत देने का प्रावधान रखा है।
कानून में व्यवस्था
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए सख्त कानूनी कारवाई, इसके तहत महिला कर्मी को आपत्तिजनक तरीके से छूना, शारीरिक/यौन संबंध बनाने की घिनौनी पेशकश करना, पोर्न चीज़े दिखाना, यौन टिप्पणियां करना आदि दंडनीय होगा।
सती प्रथा : साल
1988 में लागू हुए सती प्रथा (निवारण) अधिनियम एवं नियमावली में सती प्रथा का किसी भी रूप में पालन और महिमामंडन को दंडनीय करार दिया गया है।
मैला ढोने की प्रथा
मैला ढोने वालों की नियुक्ति एवं शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) कानून में दोषी को एक साल तक की जेल और 2 हजार रूपए तक के जुर्माने की सजा राखी गयी है।
कन्या भ्रूण हत्या
“लिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम-1994” के अनुसार प्रसव से पहले गर्व में पल रहे शिशु के लिंग की जांच कराने पर तीन से पांच साल तक जेल, और 10 से 50 हजार रूपए तक के जुर्माने की सजा रखी गयी है।
दहेज प्रथा
“दहेज प्रतिषेध अधिनियम-1961” के तहत दहेज लेने, देने या लेन-देन में सहयोग करने पर कम से कम पांच साल तक की जेल, और 15 हजार तक की राशि जुर्माना भरने की सजा का प्रावधान रखा गया है।
बाल विवाह
“बाल विवाह (निषेध) अधिनियम-2007” के तहत 18 साल से कम आयु की लड़कियों और 21 साल से कम आयु के लड़कों की शादी कराना दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
सामाजिक न्याय के क्षेत्र में भारत सरकार सुंयक्त राष्ट्र के साथ कदम से कदम मिलाकर कई कार्य कर रही है। भारत एक ऐसा देश है जहां कई तरह की जाति के लोग मौजूद हैं, इसके अलावा हमारे देश में कई ऐसी प्रथाएं हैं जो की सामाजिक न्याय के लिए खतरा सामान हैं और इन्हीं चीजों से लड़ने के लिए भारत ने कई महत्वपूर्ण प्रयास भी किए हैं।
सामाजिक न्याय की अवधारणा
- सामाजिक न्याय का मतलब देेेश के अस्तित्व और विकास के लिए आवश्यक सिद्धांत से है। जो न सिर्फ अंत:देशीय समानता बल्कि हर क्षेत्र मेंसमानता की परिस्थितियों से भी संबंधित है।
- सामाजिक न्याय की संकल्पना को आगे बढ़ाने के लिए समाज में लिंग, उम्र, जाती, धर्म, नस्ल, संस्कृति या विकलांगता जैसे मानकों की असमानता को समाप्त करना होगा।
- संयुक्त राष्ट्र संघ ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन’ (International Labour Organization- ILO) की ‘निष्पक्ष वैश्वीकरण के लिए सामाजिक न्याय पर घोषणा’ जैसे उपायों के मदत से सामाजिक न्याय के लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में कार्य कर रहा है।
सामाजिक न्याय का महत्त्व
भारतीय संविधान कि प्रस्तावना में संविधान के अधिकारों का स्रोत, सत्ता की प्रकृति, संविधान के लक्ष्यों और उद्देश्यों का वर्णन किया गया है। जहाँ सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय को संविधान के लक्ष्यों के रूप में निर्धारित किया गया है। सामाजिक न्याय की सुरक्षा मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के विभिन्न उपबंधो के जरिए भी की गई है। भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय कि अवधारणा को न सिर्फ विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति बल्कि किसी विशेष वर्ग के लिए यथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आदि के लिए विशेष व्यवस्था के जरिए अभिव्यक्त किया जाता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा 10 जून, साल 2008 को सर्वसम्मति से निष्पक्ष न्याय के लिए सामाजिक न्याय पर घोषणा को अपनाया गया। यह साल 1919 के ILO के संविधान निर्माण के बाद से इसके द्वारा अपनाए गए सिद्धांतों और नीतियों में तीसरा प्रमुख प्रयास है। यह घोषणा साल 1944 के ‘फिलाडेल्फिया घोषणा’ और साल 1998 के ‘कार्य में मौलिक सिद्धांतों और अधिकारों की घोषणा’ को आधार बनाता है। साल 2008 की घोषणा वैश्वीकरण के युग में ILO के जनादेश की सामाजिक न्याय की समकालिक अवधारणा को अभिव्यक्त करती है।

भारतीय संविधान सामाजिक न्याय की आधारशिला पर खड़ा है। हमारे संविधान निर्माताओं ने आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और लैंगिक आदि के तरफ से पिछड़े सभी वर्गो को बराबरी पर लाने के लिए कई अहम प्रावधान किए हैं। बीते सात दशको में हमने इस दिशा में काफी प्रगति भी की है, लेकिन अभी भी कई मोर्चों पर लंबा सफर तय करना बाकी है।
हर व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन इंसान की इस मुख्य विशेषता को तब चुनौती मिलती है जब अमीरी-गरीबी के भेदभाव के कारण एक अमीर इंसान एक मरते हुए गरीब की मदद करने से पीछे हटता है। समाज में फैले इस भेदभाव का एक बहुत बड़ा नुकसान उस समय दिखता है जब समाज में इससे हमारी न्याय व्यवस्था पर भी असर पड़ता है।
सामाजिक न्याय के बारे में जब भी हमारे देश भारत की बात होती है तो हम देखते हैं कि हमारे संविधान के प्रस्तावना और अनेकों प्रावधानों के माध्यम से इसे सुनिश्चित करने की बात कही गई है। लेकिन इसके बावजूद जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ है। समाज में हर किसी का एक अलग ही महत्व होता है। कई बार समाज की संरचना इस प्रकार होती है कि आर्थिक स्तर पर भेदभाव हो ही जाता है। ऐसे में न्यायिक व्यवस्था पर भी इसका असर पड़े यह बिल्कुल ठीक नहीं है।
समाज में होने वाले भेदभाव
आज समाज में फैले भेदभाव का एक घृणित चेहरा इस तरह का है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था के तहत बड़ा से बड़ा घोटाला करने वाले नेता को तो कुछ दिनों में ही रिहा कर दिया जाता है। लेकिन एक छोटी-सी चोरी करने या चोरी के आरोप में एक गरीब बच्चा कई महीनों तक जेल में सड़ता है।
पुलिसवाले न्याय और सजा का डर आम जनता को तो भली-भांति दिखाते हैं लेकिन संपन्न घराने के हत्यारों की कई बार खुद पुलिस ही सुरक्षा करती नज़र आती है। हाल ही दिल्ली में हुए गैंग रेप की गूंज तो पूरे भारत में सुनाई दी वहीं दूसरी ओर यूपी के एक इलाके में एक बलात्कार से पीड़ित लड़की ने न्याय के लिए आत्मदाह कर लिया ऐसे कितने ही अपराध अंदर ही अंदर हो जाते हैं, लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगति। अब आप एक बार अपने आप से ही सवाल कीजिए कि आखिर क्या यही समाज का न्याय है? क्या इसे ही हम सामाजिक न्याय कहते हैं।
रानीतिक दृस्टि से सामाजिक न्याय
समाज में फैली असमानता और भेदभाव से सामाजिक न्याय की मांग तेज हो जाती है। सामाजिक न्याय के बारे में विशेष प्रयास और उस पर विचार तो बहुत पहले से शुरू हो गया था, लेकिन दुर्भाग्य से अभी भी विश्व के कई लोगों के लिए सामाजिक न्याय केवल सपना मात्र बना हुआ है।
भारत में फैली जाति प्रथा और इस पर होने वाली राजनीति सामाजिक न्याय को रोकने में एक अहम कारक सिद्ध होती है। भारतीय राजनेता यह बात अच्छे से जानते हैं कि समाज में ऊंच-नीच और भेदभाव कायम करके ही वह अपनी सत्ता को बरकरार रख सकते हैं। भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास आयोग जैसी कई सरकारी तंत्र और लाखों स्वंय सेवी संगठन हमेशा इस चीज की कोशिश करते हैं कि समाज में भेदभाव से कोई आम इंसान पीड़ित ना हो। लेकिन जब तक समाज की सोच और सरकारखुद आगे बढकर इस बारे में पहल नहीं करेगी तब तक सब सही हो पाना असम्भव है।