12 जनवरी का दिन देश भर के लिए बेहद खास होता है। यह केवल एक साधारण दिन नहीं है। 12 जनवरी के दिन भारत के महान दार्शनिक, आध्यात्मिक और सामाजिक नेताओं में से एक स्वामी विवेकानंद की जयंती हैं। हमारा देश युवाओं से भरा देश है और युवाओं के लिए यह एक अवसर है उस महान आत्मा को याद करने का जिसने 128 साल पहले पुरे विश्व में भारत का नाम रोशन किया। भारतीय संस्कृति और सनातन जीवन पद्धति से पूरी दुनिया का परिचय कराया। उनके सम्मान में 12 जनवरी को पूरे देश में राष्ट्रीय युवा दिवस के तौर पर मनाया जाता है। आइए जानते हैं कब और कैसे इस परंपरा की शुरुआत हुई और राष्ट्रीय युवा दिवस क्या है, इसका महत्व क्या है और इसके इतिहास के बारे में।
राष्ट्रीय युवा दिवस(National Youth Day) की शुरुआत
भारत में स्वामी विवेकानंद की जयंती यानि 12 जनवरी के दिन हर साल राष्ट्रीय युवा दिवस(National Youth Day) के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के तरफ़ से साल 1984 में ‘अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष’ घोषित किया गया। इसके महत्त्व पर विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा किया कि साल 1984 से 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती (जयन्ती) के दिन देशभर में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाए।
राष्ट्रीय युवा दिवस पर क्या होता है
इस दिन देश भर के विद्यालयों और महाविद्यालयों में विभिन्य प्रकार के कार्यक्रम होते हैं। रैलियाँ व परेड निकाली जाती हैं, योगासन के आयोजन की जाती है, पूजा-पाठ होता है, व्याख्यान होते हैं, विवेकानंद साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। देश में हर साल 12 जनवरी के दिन स्वामी विवेकानंद के आदर्शों और विचारों को सम्मान देने के लिए राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में युवाओं के महत्व के बारे में बहुत मुखर थे। विवेकानंद ने विदेशों में जो हासिल किया उसने भारत की आध्यात्मिकता की छवि और योग वेदांत संस्कृति को पुनर्जीवित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है।

राष्ट्रीय युवा दिवस का महत्व
असल में स्वामी विवेकानन्द आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। खास कर भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हम भारतवाशीयो को कुछ ऐसी वस्तु प्रदान की है जो हममें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा के प्रति एक प्रकार का अभिमान जगाती है। स्वामी जी ने जो कुछ लिखा है वह हमारे लिए खासकर युवा पीढ़ी के लिए हितकर है और होना ही चाहिए क्योंकि उनके लिखे गए सारे ज्ञान आने वाले समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित किया है। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से प्राप्त होने वाले ज्ञान, प्रेरणा और तेज का हमेशा सदुपयोग करेगी।
विश्व में जहां भी उन्होंने व्याख्यान दिए सभी जगह उनके द्वारा दिए गए उद्बोधन लोगों के लिए उनका प्रेरणास्रोत बनें। उनके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द अपने आप में गहन विषय का द्योतक था। स्वामी विवेकानंद की आकांक्षा युवाओं को उस हद तक प्रेरित करने के लिए थी कि वे उन परिवर्तनों को आवाज देना शुरू करें जो वे चाहते हैं और अंत में उन्हें पूरा करते हैं। उनकी दृष्टि को सम्मान देने और युवाओं को उस पर कार्य करने के लिए प्रेरित करने के लिए, देश भर में राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। उन्होंने कहा था कि जब तक तुम खुद पर भरोसा नहीं करोगे, तब तक तुम्हें ईश्वर पर भरोसा नहीं हो सकता। उठो, जागो और तब तक मत रूको जब तक तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते।
स्वामी विवेकानंद का जन्म साल 1863 में 12 जनवरी के दिन कोलकाता में हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्ता था। उन्होंने ही पूरे विश्व में भारत के आध्यात्मा का डंका पीटा था। स्वामी विवेकानंद ने साल 1893 में 11 सितंबर के दिन शिकागो, अमेरिका की विश्व धर्म सम्मेलन सभा में भाषण दिया। जिसके बाद भारत को पूरे विश्व में अध्यात्म के केंद्र के रूप में देखा जाने लगा। यही नहीं स्वामी विवेकानंद के विचार आज भी युवा पीढ़ी को सफलता का मार्ग दिखाता है। स्वामी विवेकानंद का बेलूर मठ से गहरा संबंध रहा है यह पश्चिम बंगाल के कोलकाता में है। इसकी स्थापना रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखने वाले साधू सन्यासियों को संगठित करने के लिए साल 1897 में 1 मई के दिन की थी। ताकि रामकृष्ण परमहंस के दिए गए उपदेशों को आम लोगों तक पहुंचाया जा सके। आइए जानते हैं स्वामी विवेकानंद के संपूर्ण जीवन के बारे में और उनसे जुड़ी कुछ खास बातों के बारे में।
स्वामी विवेकानंद का जन्म
स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। विवेकानंद जब 25 वर्ष के थे तभि वे घर बार छोड़कर एक साधारण सन्यासी बन गए। संन्यास लेने के बाद उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्ता से स्वामी विवेकानंद पड़ा। स्वामी विवेकानंद जी के पिता का नाम था विश्वनाथ दत्त वे कोलकाता हाईकोर्ट मे वकील थे और उनकी मां का नाम था भुवनेश्वरी देवी जो धार्मिक विचारों वाली महिला थी। बचपन से ही विवेकानंद जी का झुकाव अपनी मां की तरह ही ज्यादातर अध्यात्मिकता की ओर था। उनकी माता भुवनेश्वरी भगवान शिव की पूजा अर्चना में ही रहती थी। पिता और उनके मां के धार्मिक प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में बहुत मदद की।
स्वामी विवेकानंद की शिक्षा
साल 1871 में जब विवेकांनद 8 साल के थे तो स्कूल गए और बाद में साल 1879 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया। जिससे यह साबित होता है कि वह पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छे थे।
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु माना था। रामकृष्ण परमहंस से उनकी मुलाकात साल 1881 में कोलकाता के दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में हुई थी। और परमहंस की विचारधारा से विवेकानंद इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपना गुरु मान लिया। रामकृष्ण परमहंस से विवेकानंद की मुलाकात कोई साधारण नहीं थी क्योंकि विवेकानंद जी ने मुलाकात के दौरान उनसे यही सवाल किया था जो सवाल वे अक्सर दूसरों से करते थे कि “क्या आपने कभी भगवान को देखा है” जिसका जवाब देते हुए रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि हां मैंने देखा है। में भगवान को इतना स्पस्ट देख सकता हूं जितना कि मैं तुम्हें देख सकता हूं। लेकिन फर्क केवल इतना है कि मैं भगवान को तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूं। रामकृष्ण परमहंस के इन शब्दों ने विवेकानंद के जीवन पर गहरी छाप छोड़ी थी।
साल 1893 में अमेरिका में हुए धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने “अमेरिका के भाइयों और बहनों” इस संबोधन से भाषण की शुरुआत की। जिसके बाद 2 मिनट तक आर्ट इंस्टिट्यूट ऑफ शिकागो में तालियां बजती रही और यह बात इतिहास में भी दर्ज हो गई। स्वामी विवेकानंद के द्वारा साल 1897 के 1 मई को कोलकाता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की गई। तो वही साल 1898 में 9 दिसंबर को गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की गई। स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिन यानी 12 जनवरी के दिन पुरे भारत में हर साल राष्ट्रीय युवा दिवस के तौर पर मनाया जाता है और इसकी शुरूआत साल 1985 से की गई थी।
स्वामी विवेकानंद को उनके युवावस्था में ही दमा और शुगर की बीमारी हो गई थी। उन्होंने एक बार अपनी ही मौत की भविष्यवाणी करते हुए कहा कि यह बीमारियां मुझे 40 साल भी पार नहीं करने देगी और उनकी मृत्यु को लेकर उनकी भविष्यवाणी सच भी साबित हुई। उन्होंने केवल 39 वर्ष की आयु में ही साल 1902 में 4 जुलाई के दिन बेलूर स्थित रामकृष्ण मठ में महासमाधि लेते हुए अपने प्राण त्याग दिए। महासमाधि लेने के बाद स्वामी विवेकानंद का अंतिम संस्कार उनके अनुयायियों ने बेलूर में गंगा तट पर किया। और यह गंगा तट ही था जिसके दूसरे ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का अंतिम संस्कार किया गया था।
स्वामी विवेकानंद वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम था नरेंद्र नाथ दत्त उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में साल 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में भारत के आध्यात्मिकता का परिपूर्ण वेदांत स्वामी विवेकानंद की वक्तृत्व के कारण ही पहुंचा था। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी अपना काम कर रहा है। वह रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे।
कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्था परिवार में जन्म लेने वाले विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर काफी रुझान रखते थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे। जिससे उन्होंने सीखा था कि सारे जीवो में स्वयं परमात्मा का अस्तित्व होता है। इसीलिए मानव जाति अगर दूसरे जरूरतमंद मनुष्यों की मदद करता है तो वह परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।
राम कृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया। और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल किया। बाद में जाकर विश्व धर्म संसद सालासर 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानंद ने संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, इंग्लैंड में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानंद को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में जाना जाता है। उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

एक बार की बात है एक बार स्वामी विवेकानंद अपने आश्रम में सो रहे थे तभि एक व्यक्ति उनके पास आता है जो बहुत दुखी रहता है। आते ही वह व्यक्ति स्वामी विवेकानंद के चरणों में गिर पड़ता है और कहता है कि महाराज में अपने जीवन में बहुत मेहनत करता हूं हर काम को खूब मन लगाकर भी करता हूं फिर भी आज तक में कभी सफल नहीं बन पाया। उस व्यक्ति की बात सुनकर स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि ठीक है आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ी देर तक घुमा कर ले आंए तब तक मैं आपके समस्या का समाधान ढूंढता हूं।
इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कुत्ते को लेकर घुमाने चला जाता है और फिर कुछ समय बीतने के बाद वह व्यक्ति वापस आता है तो स्वामी विवेकानंद ने उस व्यक्ति से पूछा कि यह कुत्ता इतना हाफ क्यों रहा है जबकि तुम थोड़े से भी थके हुए नहीं लग रहे हो ऐसा क्यों। इस पर वह व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कुत्ता इधर-उधर रास्ते पर भागता रहा और कुछ भी देखता तो उधर ही तोड़ जाता था जिस कारण यह ज्यादा थक गया।
ऐसे में स्वामी विवेकानंद मुस्कुरा कर कहते हैं कि बस यही तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारे सामने ही होती है लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर-उधर भागते हो। जिससे कि तुम अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो पाए यह बात सुनकर वह व्यक्ति को समझ आ गया कि अगर सफल होना है तो अपनी मंजिल पर ध्यान देना जरूरी है।
स्वामी विवेकानंद से जुड़ी इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें जो करना है, जो कुछ बनना है, हम उस पर ध्यान नहीं देते और दूसरों को देखकर वैसे ही काम करने लगते हैं। जिस कारण हम अपने सफलता और मंजिल के पास होते हुए भी भटक जाते हैं। इसीलिए अगर जीवन में सफल होना है तो हमेशा हमें अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
नारी का सम्मान
स्वामी विवेकानंद की ख्याति आज पूरे देश-विदेश में फैली हुई है। एक समय की बात है विवेकानंद समारोह के लिए विदेश गए हुए थे और उनके समारोह में बहुत से विदेशी लोग भी आए थे। उनके द्वारा दिए गए स्पीच से एक विदेशी महिला बहुत प्रभावित हुई और वह विवेकानंद के पास आई और स्वामी विवेकानंद से बोली कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूं ताकि आपके जैसा ही गौरवशाली पुत्र मुझे भी प्राप्त हो।
ऐसे में स्वामी विवेकानंद बोले कि क्या आप जानती है कि मैं एक सन्यासी हूं तो ऐसे में मैं कैसे शादी कर सकता हूं। अगर आप चाहे तो मुझे आप अपना पुत्र बना सकती है इससे मेरा सन्यास भी नहीं टूटेगा और आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा। यह बात सुनते ही वह विदेशी महिला स्वामी विवेकानंद के चरणों में गिर गई और बोली कि आप धन्य हैं आप ईश्वर के समान है जो किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते।
स्वामी विवेकानंद से जुड़ी इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि सच्चा पुरुष वही होता है जो हर परिस्थिति में नारी का सम्मान करें।
बचपन से ही नरेंद्र यानी विवेकानंद बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे लेकिन भी कुछ हद तक शरारती भी थे। वे अपने साथी के साथ व अपने अध्यापकों के साथ काफी शरारत करते थे। उनके घर में नियम पूर्वक रोज पूजा पाठ होता था, माता धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण पुराण, रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने ने उन्हें बहुत अच्छा लगता था और कथावाचक उनके घर हमेशा आते रहते थे। आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से ही विवेकानंद के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उन्हें प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी। भगवान को जानने के लिए वे इतने प्रश्न करते थे कि कभी-कभी उनके माता-पिता और पंडित भी उनके सवालों का जवाब नहीं दे पाते थे।
विवेकानंद धर्म-दर्शन, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य जैसे सभी विषयों के एक उत्साही पाठक थे। उनकी वेद, उपनिषद, भगवत गीता, महाभारत, रामायण और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिंदू शास्त्रों में बेहद रूचि थी। इसके अलावा विवेकानंद नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम व खेलकूद में भाग लिया करते थे। इसके बाद विवेकानंद ने पश्चिमी दर्शन, पश्चिमी तर्क और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इंस्टिट्यूट में किया। साल 1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की और साल 1884 में कला स्नातक डिग्री पूरी कर ली।
स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व की नींव में गुरु भक्ति, गुरु सेवा और गुरु के प्रति
अत्यंत निष्ठां था जिसका परिणाम पूरे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानंद अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव के शरीर त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुंब की नाज़ुक हालत व खुद के भोजन की चिंता किए बिना वे गुरु की सेवा करते थे। विवेकानंद ने एक ऐसे समाज की भी कल्पना की थी जिस समाज में जाति या धर्म के आधार पर मनुष्यों में कोई भेद ना रहे। उन्होंने हो वेदांत के सिद्धान्तों को इसी रूप में देखा। विवेकानंद को युवकों से बड़ी आशाएं थी आज के युवकों के लिए सन्यासी विवेकानंद का जीवन एक आदर्श है।
यात्राएं
25 वर्ष की आयु में ही विवेकानंद ने गेरुआ वस्त्र धारण किया था और फिर पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा कर ली। विवेकानंद ने साल 1893 में 31 मई के दिन यात्रा शुरू की और कई शहरों का दौरा किया। चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुंचे साल 1893 में शिकागो में विश्व धर्म परिषद हो रही थी जिसमे स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे।
यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारत वासियों को बहुत हीन दृस्टि से देखते थे। वहां लोगों ने स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद में बोलने का समय ना देने का बहुत प्रयास किया। लेकिन एक अमेरिकन प्रोफ़ेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए और फिर अमेरिका में उनका स्वागत किया गया वहां उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया।

विवेकानंद 3 वर्ष में अमेरिका में रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित की अमेरिकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे हमेशा अपने को “गरीबों का सेवक” कहते थे। उन्होंने भारत के गौरव को देश देशांतर में उज्जवल करने की कोशिश की।
विवेकानंद की मृत्यु
विवेकानंद के ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा एक और विवेकानंद चाहिए यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है। उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई साल 1902 को भी उन्होंने अपने ध्यान करने के दिनचर्या को नहीं बदला और सुबह दो-तीन घंटे ध्यान किया।
ध्यान अवस्था में ही अपने ब्राह्मरन्ध्र को भेद कर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चंदन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गई थी। और उसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का 16 वर्ष पहले अंतिम संस्कार हुआ था। उनके मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में विवेकानंद के शिष्यों और अनुयायियों ने वहां एक मंदिर बनवाया और पूरे विश्व में विवेकानंद और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
स्वामी विवेकानंद की शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत —
- शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास हो सके।
- बालक और बालिका दोनों को समान शिक्षा मिलनी चाहिए।
- शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो,बुद्धि विकसित हो और बालक आत्मनिर्भर बने।
- पाठ्यक्रमो में लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए
- धार्मिक शिक्षा पुस्तक के द्वारा ना देकर आचरण और संस्कारों के द्वारा देनी चाहिए।
- शिक्षक और छात्र का संबंध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
- शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ति दे।
- सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार और प्रसार किया जाना चाहिए।
- राष्ट्रीय और मानवीय शिक्षा परिवार से ही शुरु करना चाहिए।
- देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की भी व्यवस्था की जानी चाहिए।
- स्वामी विवेकानंद के अनुसार व्यक्ति को अपनी रुचि को महत्व देना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद के कुछ अनमोल वचन —
- उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त ना हो जाए।
- हर आत्मा ईश्वर से जुड़ा है हमें इसकी दिव्यता को पहचाननी चाहिए। अपने आप को अंदर या बाहर से सुधार कर कर्म, पूजा अंतर मान या जीवन दर्शन इन में से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है। और अपने आपको खोल दें यही सभी धर्मों का सारांश है।
- एक विचार ले और उसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचें, सपना देखे और इसी पर विचार करें। आपके मस्तिष्क, दिमाग और रगों में यही विचार भर जाए क्योकि यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह बड़े-बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।
- एक समय में एक काम करो, काम करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब भूल जाओ।
- पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।
- एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारों बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।
स्वामी विवेकानंद के विचारों में ऐसी क्षमता है कि वो हर किसी व्यक्ति के जीवन को बदल सकते हैं। विवेकानंद के दुनिया को जीतने के हथियार शिक्षा और शांति थे। वे चाहते थे कि युवा अपने आरामदायक जीवनचर्या से बाहर निकल कर अपनी चाहत के अनुसार कुछ हासिल करें। विवेकानंद ने अपने हर विचार को बुद्धि और तर्क के जरिए स्थापित किया। विवेकानंद को दर्शन, धर्म, साहित्य, वेद, पुराण, उपनिषद विलक्षण समझ थी। विवेकानंद का कहना था कि पढ़ने के लिए एकाग्रता जरूरी है और एकाग्र होने के लिए ध्यान जरूरी है। ध्यान से ही हम अपनी इंद्रियों पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते हैं।