यह एक बहुत बड़ा सवाल है कि वाराणसी को यह नाम क्यों मिला है ? असल में यह नाम इस जगह को दो नदियों के वजह से मिला है। वहां वरुणा और अस्सी नामक दो नदियां प्रवाहित होती है। ऐसा होने से दोनों नदियों के नाम को मिलाकर यानी कि वरुणा और अस्सी नाम की दोनों नदियों को संयुक्त रूप से वाराणसी कहा जाता है। यह दोनों नदियां क्रमश उत्तर और दक्षिण से आकर मिलती है। ऋवेद में काशी या शहर को काशी का काशी नाम से बुलाया गया है इसे एक प्रकाशित शब्द से लिया गया है इसका अभिप्राय शहर के ऐतिहासिक अभी बढ़ाए शहर ऐतिहासिक स्तर से इसीलिए है क्योंकि यह शहर हमेशा से ही ज्ञान, शिक्षा एवं संस्कृति का केंद्र रहा है। सबसे पहले काशी शब्द अथर्ववेद के पिप्पलाद शाखा से आया था और इसके बाद शतपथ में भी इसका उल्लेख है। लेकिन यह संभव है कि नगर का नाम जनपद में पुराना हो, स्कंद पुराण के काशी खंड में नगर की महिमा 25000 श्लोकों में कहा गया है। स्कन्द पुराण के काशी खंड में कहा गया है की समस्त संसार के सभी तीर्थ मिलकर असिसंभेद के 16 वे भाग के बराबर भी नहीं होते।
तो वहीं मत्स्य पुराण में इस नदी का महत्व बताते हुए कहा गया है कि,– तब, जप, ध्यान, ज्ञान रहित तथा दुखों से पीड़ित मनुष्य के लिए काशी ही एकमात्र परम गति है। श्री विश्वेश्वर के आनंद कानन में दशाश्वमेध, लोलार्क, बिंदुमाधव, केशव और मणिकर्णिका यह पांच प्रधान तीर्थ है। इसी से इसे अविमुक्त क्षेत्र भी कहा जाता है। इस पवित्र नगरी के उत्तर की ओर ओमकारखण्ड, दक्षिण की ओर केदारखंड और बीच में विश्वेश्वर खंड है। प्रसिद्ध विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग इसी खण्ड में स्थित है, पुराणों में इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में यह कथा दी गई है। प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क टवेन लिखते हैं कि बनारस इतिहास से भी पुरातन है परंपराओं से पुराना है किंबदंती उसे भी प्राचीन है और जब इन सब को एकत्र किया जाएगा तो उस संग्रह से भी दुगना प्राचीन है।

काशी में भगवान शिव का वास कैसे हुआ
भगवान शिव पार्वती से विवाह के बाद कैलाश पर्वत पर रहते थे। लेकिन पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना पार्वती जी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने भगवान शिव से कहा कि आप मुझे अपने घर ले चलिए क्योंकि यहां रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। सारी लड़कियां विवाह के पश्चात अपने पति के घर रहती है मुझे पिता के घर में ही क्यों रहना पड़ रहा है। तब भगवान शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली और माता पार्वती को अपने साथ लेकर अपने पवित्र नगरी काशी में रहने चले गए।
वहां आकर वे विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए। शास्त्रों में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का निगदान पुष्पकल के रूप में किया गया है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन व पूजन द्वारा मनुष्य किए गए संपूर्ण पापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वेश्वर के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भूतभावन भगवान शिव अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है भगवान शिव की कृपा उस पर हमेशा बनी रहती हैं।
यह ज्योतिर्लिंग उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगर काशी में स्थित होने के कारण इस नगरी का प्रलय काल भी लोप नहीं होता। सृष्टि की आदि स्थली भी इसी नदी को कहा जाता है। भगवान विष्णु ने इसी स्थान से सृष्टि की कामना से तपस्या करके भगवान शंकर जी को प्रसन्न किया था। अगस्त्य मुनि ने भी इसी स्थान पर अपनी तपस्या करके भगवान शिव को संतुष्ट किया था। इस नगरी की महिमा ऐसी है कि यहां जो भी कोई अपने प्राण त्याग करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां पर मरने वाले पापी से पापी व्यक्ति भी सहज से ही भवसागर पार हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता।
वाराणसी संस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र माना जाता है
काशी नरेश वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक और सभी धार्मिक कार्यकलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी के संस्कृति का गंगा नदी और इसके धार्मिक महत्व से पूरी तरह अटूट है। यह शहर कितने ही वर्षों से भारत का खासकर उत्तर प्रदेश के संस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र माना जाता रहा है। भारत के कई दार्शनिक लेखक, कवि, संगीतज्ञ वाराणसी में ही रहे हैं जिनमें उल्लेखित कबीर, आचार्य रामानंद, वल्लभाचार्य, रविदास, त्रैलंग स्वामी, शिवानंद गोस्वामी, जयशंकर प्रसाद, रवि शंकर, पंडित रवि शंकर, मुंशी प्रेमचंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, गिरिजा देवी, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया भी शामिल है। हमारे गौतम बुद्ध ने भी अपना प्रथम प्रवचन इसी जगह के निकट में रहने वाले सारनाथ में दिया था। तो वही हमारे हिंदू धर्म के परम पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस भी गोस्वामी तुलसीदास ने यहां से लिखा। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं — बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, महा इंस्टिट्यूट ऑफ हायर टीबेटियन स्टडीज और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय।
अति प्राचीन काशी के बारे में जानकारी
कहा जाता है कि गंगा तट पर बसी काशी नगरी जैसी प्राचीन नगरी संसार में कहीं नहीं है। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के काले लोगों ने इस नगरी की नींव रखी थी और तभी यहां पर कपड़ा और चांदी का व्यापार शुरू हुआ था। उसके बाद पश्चिम से आए ऊंचे कद के गोरे लोगों ने उनकी इस नगरी को उनसे छीन ली। यह बड़े ही लड़ाकू स्वभाव के थे उनके घर द्वार नहीं थे, और ना ही अचल संपत्ति थी। वह अपने आपको आर्य कहते थे यानी कि वह कहते थे कि वह श्रेष्ठ व महान है। उन आर्यों की अपनी जाती थी अपने कुल घराने थे। उनका एक राजघराना तभी काशी में भी आ जमा काशी के पास ही अयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। यानि सूर्यवंश काशी में चंद्रवंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भारत राज कुल के चंद्रवंशी राजा राज्य करते थे।
महाभारत काल में काशी नगरी
महाभारत काल में काशी भारत के समृद्ध जनपदों में से एक माना जाता था। महाभारत में वर्णित एक कथा के अनुसार कहा जाता है कि पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने काशी नरेश के तीन पुत्री अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणाम स्वरुप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई फिर उसके बाद कर्ण ने भी दुर्योधन के लिए काशी के राजकुमारी का बलपूर्वक अपहरण कर लिया। जिस कशी नरेश महाभारत के युद्ध में पाण्डवों के तरफ से लड़े थे। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने हस्तिनापुर को डूबा दिया फिर पांडवों के वंशज वर्तमान इलाहाबाद जिले में जमुना नदी के किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर वत्स का अधिकार हो गया।
उत्तर वैदिक काल में काशी नगरी
उत्तर वैदिक काल में ब्रह्म दत्त नाम के राज्य कुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस स्कूल में बड़े पंडित शासक हुए। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेशों के शासक जनक हुए। जिनके दरबार में याज्ञवलक्य जैसे ज्ञानी महर्षि और गार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रर्थ करती थी। और इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ ये आत्मा और परमात्मा के दोनों ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के संदर्भ पर जन्म और मृत्यु के बाद लोक, परलोक पर देश में विचार हो रहे थे और विचारों को ही उपनिषद कहते हैं। जिस कारण इस काल को भी उपनिषद काल कहा जाता है।

महाजनपद युग
महाजनपद युग के साथ ही वैशाली और मिथिला के साधु वर्तमान महावीर हुए इसी काल में काशी के राजा अश्वसेन हुए। उस समय भारत में चार राज्य बहुत प्रबल रूप में थे। मगध, कौशल वत्स और उज्जैयिनी नाम के ये राज्य बहुत प्रसिद्ध थे जिसे पाने के लिए हर राज्य के राजा आपस में लड़ते रहते थे। कभी काशी वत्स के हाथ में चली जाती थी, तो कभी मगध की ओर जाती थी, तो कभी कौशल की ओर चली जाती थी। बुद्ध से कुछ पहले और पार्श्वनाथ के बादकौशल श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में ले लिया। उस समय मगध के राजा बिंबिसार ने कौशल देवी से विवाह किया जिसके बाद उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम था अजातशत्रु लेकिन मगध के राजा बिंबिसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर राजगद्दी छीन ली।
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