भगवान विश्वकर्मा दुनिया के सबसे पहले इंजीनियर और वास्तुकार माने जाते हैं। इसीलिए भगवान विश्वकर्मा की जयंति के दिन फैक्ट्रीी, उद्योगों और हर प्रकार के छोटे बड़ी मशीनों की पूजा होती हैै। खासकर के यह पुजा श्रमिक समुदाय से जुड़े लोगों के लिए बेहद खास होता है। इस दिन सभी कारखानो और औद्योगिक संस्थानों में भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा होती है। भगवान विश्वकर्मा इस संसार के प्रथम और सबसे बड़े इंजीनियर माने जाते हैं।
कारीगर अपने औजारो की पूजा करते हैं और इस तिथि पर पूरा दिन कामकाज बंद रहता है। कहा जाता है कि भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने से जीवन में हमेशा सुख समृद्धि बनी रहती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार संसार की रचना तो भगवान ब्रह्मा जी ने की लेकिन उसे सुन्दर बनाने का काम भगवान विश्वकर्मा ने किया।
कन्या सक्रांति पर विश्वकर्मा जी के पूजन की तिथि 17 सितंबर शुक्रवार 6 बजकर 7 मिनट से प्रारंभ होकर 8 सितंबर शनिवार के दिन 3 बजकर 30 मिनट तक होगी। इस दिन सूर्य उदय से पूर्व उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा के लिए सभी सामग्रियों को एकत्रित करें। हाथ में थोड़े से चावल लें और भगवान विश्वकर्मा जी का ध्यान करें। भगवान विश्वकर्मा जी को इस दिन सफेद पूल जरूर चलाएं। इसके बाद भगवान विश्वकर्मा को धूप, दीप, पुष्प आदि अर्पित करते हुए हवन कुंड में आहुति दें, इस दौरान अपने औजारों की भी पूजा अवश्य करें।और फिर भगवान विश्वकर्मा जी को भोग लगाकर सभी लोगो में प्रसाद बांटे।

शास्त्रों में भगवान विश्वकर्मा को ब्रह्मा जी का पुत्र कहा जाता है उन्होंने स्वर्णनलोक, पुष्पक विमान द्वारिका नगरी, कुबेर पूरी आदि का निर्माण किया था। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव के लिए त्रिशूल, विष्णु जी का सुदर्शन चक्र और यमराज का काल दंड, कृष्ण जी की द्वारका, पांडवो के लिए इंद्रप्रस्थ, रावण की लंका, इंद्र के लिए ब्रज के साथ सभी चीजों का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा जी ने ही किया था।
पौराणिक काल के सबसे बड़े सिविल इंजीनियर माने जाने वाले भगवान विश्वकर्मा की पूजा हर साल कन्या सक्रांति को होती है और अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 17 सितंबर को मनाया जाता हैै। इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी का जन्म हुआ था इसलिए विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती हैै। मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में जितनी राजधानिया थी उनका निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था। सतयुग का स्वर्ण युग, त्रेता युग की लंका, द्वापर की द्वारिका या फिर कलयुग का हस्तिनापुर इन सब के संरचना के बारे में कहा जाता है कि उनके निर्माता भगवान स्वयं भगवान विश्वकर्मा ही हैै।
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण यानी कि साक्षात भगवान विष्णु सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए। उनके नाभि कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे और फिर ब्रह्मा जीके पुत्र के रुप में ‘धर्म’ और धर्म के पुत्र के रुप में ‘वास्तुदेव’ का जन्म हुआ। मन्यता के अनुसार धर्मदेव और वस्तु नामक स्त्री से ‘वास्तु’ सातवें पुत्र हुए जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। इन्ही वास्तुदेव को उनके ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा जी का जन्म हुआ और पिता की तरह विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने।
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूपों में दो बाहु वाले, चार बाहु वाले दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख और पंचमुख वाले प्रतिमा स्थापित कि जाती है। उनके मनु मय, त्वष्टा, शिल्पी और दिव्या नामक पांच पुत्र है यह भी माना जाता है कि आशु वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थेे।