वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आदि गुरु शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। आदि गुरु शंकराचार्य जी को हिंदू वैदिक सनातन धर्म व सनातन संस्कृति के प्रचार व प्रतिष्ठा का श्रेय दिया जाता है। शंकराचार्य जी को तो विद्वान भगवान शिव का अवतार भी कहते हैं पुराण शास्त्र में भी भगवान शिव द्वारा कलयुग के प्रथम चरण में अपने चार साथियो के साथ आचार्य शंकराचार्य जी के रूप में अवतार लेने का वर्णन हैै।
वैशाख महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आदि गुरु शंकराचार्य की जयंती के तौर पर मनाई जाती है। इस साल 2021 मेंं यह जयंती 17 मई सोमवार के दिन मनाया गया इस अवसर पर आइए जानते हैं आदि गुरु शंकराचार्य जी के बारे में। हिंदू धर्म में आदि गुरु शंकराचार्य जी का विशेष महत्व है धार्मिक मान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य जी भगवान शिव के ही अवतार है जिन्होंने धरती पर अवतार लिया था।
धार्मिक मान्यता के अनुसार आदि गुरु शंकराचार्य जी का जन्म वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुई थी। शंकराचार्य के जन्मोत्सव पर देश के सभी हिंदू धर्मावलंबी लोगो के बीच आदि गुरु शंकराचार्य की जयंती मनाई जाती है यानी उनके जन्म के तिथि पर शंकराचार्य जयंती के रूप में मनाया जाता है।
संत आदि शंकराचार्य जी को जगदुरु शंकराचार्य के नाम से भी जाना जाता है। जगदुरु शंकराचार्य भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक हैं इन्होंने हिंदू संस्कृति और सनातन धर्म को पुनर्जीवित और पुनःगठित करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। हिंदू धर्म ग्रंथो की माने तो आदि गुरु शंकराचार्य को कम उम्र में ही वेदो का ज्ञान प्राप्त हुआ था उन्होंने ही अद्वैतवाद का संकलन किया था जीसमें वेदो और हिंदू धर्म के महत्व को समझाया गया है।
आदि गुरु शंकराचार्य जी का जन्म केरल के कलाड़ी नामक गांव में सन 788 ईसा पूर्व में शिव गुरू और भगवती आर्यम्वा के घर एक ब्राम्हण परिवार में हुआ था। लेकिन उनका निधन अल्पायु में ही हो गया था जब वह केवल 32 वर्ष के थे लेकिन उन्होंने अपने अल्पायु में ही हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया था।
आदि गुरु शंकराचार्य जी ने हिंदू सनातन धर्म को संगठित करने का कार्य किया था कम उम्र में ही इन्हें वेदो का ज्ञान प्राप्त हो गया था। बचपन से ही शंकराचार्य जी को सन्यासी जीवन के प्रति बहुत रुझान रहा था लेकिन उनकी माता यह कभी नहीं चाहती थी कि शंकराचार्य सन्यासी जीवन को अपनाए।
हिंदू धर्म ग्रंथो के मुताबिक इन्होंने 23 पुस्तको की रचना की है जिनमें अविभाजित ब्रह्मा की अवधारणा को बेहद गहराई से समझाया गया है। इन्होंने हिंदू धर्म को समझाने के लिए अद्वैत वेदांत की स्थापना की जिनमें वेदो की व्याख्या की गई है। इन हिंदू विद्वता को यथार्थवाद से आशीर्वाद की ओर ले जाने का श्रेय दिया जाता है उनके प्रकाशनो ने मीमांसा का कार्यालय मानसा की भी आलोचना की गई है।
उन्होंने भारतवर्ष के चारो दिशाओ में चार मठो की स्थापना की थी जिसमें उत्तर दिशा के बद्रीकाश्रम में ज्योर्तिमठ, दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी मठ, पूर्व दिशा के जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ और पश्चिम दिशा के द्वारिका में शारदा मठ की स्थापना की थी। इसके अलावा भी आदि गुरु शंकराचार्य जी ने दशनामी संप्रदाय की स्थापना की थी यह 10 संप्रदाय हैं वह गिरी, पर्वत, सागर, पूरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
आदि शंकराचार्य जी के चार प्रमुख शिष्य हुए थे जिन्होंने इनके कामो को आगे बढ़ाया। यह चारो शिष्य पद्मपाद (सनन्दन), हस्तामलक, मंडल मिश्र, तोटक (तोटकचार्य) रहे और आदि शंकराचार्य के गुरु गौडपादाचार्य और गोविंदपादाचार्य।
ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि ब्रह्मा ही सत्य है और जगत माया, आत्मा की गति मोक्ष में है। ऐसा माना जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य जी ने केदारनाथ क्षेत्र में समाधि ली थी केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भी शंकराचार्य ने ही करवाया था।
कहा जाता है कि एक बार जब शंकराचार्य केवल 8 साल की आयु के थे तब अपनी माता के साथ नदी में स्नान करने के लिए गए हुए थे। तब वहां उनको एक मगरमच्छ ने पकड़ लिया, जिसके बाद शंकराचार्य ने अपनी माता से कहा कि अगर वह सन्यासी बनने की अनुमति नहीं देती हैं तो वह मगरमच्छ उन्हें मार देगा, जिसके बाद उनकी माता ने उन्हें सन्यासी बनने की अनुमति दे दी।

शंकराचार्य जी का निधन केवल 32 साल की उम्र में ही उत्तराखंड के केदारनाथ धाम में हुआ था। लेकिन इससे पहले इन्होंने हिंदू धर्म से जुड़ी कई रूढ़िवादी विचारधारा से लेकर बौद्ध और जैन दर्शन को लेकर कई चर्चा किए थे। जिसके बाद शंकराचार्य को अद्वैत परंपरा के मठो के मुखिया के लिए प्रयोग की जाने वाली एक उपाधि माना जाता है। हिंदू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु के पद में होता है जो बौद्ध धर्म में दलाईलामा और ईसाई धर्म में पोप के बराबर समझा जाता है।
इस पद की परंपरा की शुरुआत आदि गुरु शंकराचार्य जी ने ही की थी। शंकराचार्य जी ने सनातन धर्म के प्रसार व प्रतिष्ठा के लिए और पूरे देश भर में धर्म और अध्यात्म के प्रसार के लिए भारत के चार क्षेत्रो में 4 मठो की स्थापना भी की। उन्होंने अपने नाम वाले इस शंकराचार्य पद पर अपने चार मुख्य शिष्यो को बैठाया जिसके बाद इन चार मठो में शंकराचार्य पद को निभाने की शुरुआत हुई।
आदि गुरु शंकराचार्य जी ने जन-जन तक वेद शास्त्रो के ज्ञान को पहुंचाने के लिए देश भर की यात्रा की थी और जनमानस को हिंदू वैदिक सनातन धर्म और उसमें वर्णित संस्कारो से अवगत कराया। उनके दर्शन ने सनातन संस्कृति को एक नई पहचान दी और भारतवर्ष के कोने-कोने तक लोगो को वेदो के महत्वपूर्ण ज्ञान से अवगत कराया।
क्योंकि इससे पहले वेदो का कोई प्रमाण नहीं है ये एक भ्रामक प्रचार था आदि गुरु शंकराचार्य जी ने 8 वर्ष की अल्पायु में यह चार वेदो का ज्ञान प्राप्त किया। 12 वर्ष की आयु में उन्होंने सभी शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त किया और 16 वर्ष की आयु में उपनिषद आदि ग्रंथो की भी रचना की। उन्होंने भारतवर्ष के चार कोनो में जो चार मठो की स्थापना की है वह अभी तक बहुत प्रसिद्ध व पवित्र माने जाते हैं और उन पर आसीन सन्यासी शंकराचार्य कहे जाते हैं।
आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भगवत, गीता और ब्रह्म सूत्र पर शंकर भाष्य के साथ ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद पर भाष्य लिखा है।
उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार है वही ब्रह्म है वही द्वैत की भूमि पर शगुन साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनो का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए उनकी उपासना को अपरिहार्य मार्ग बताया।
उन्होंने उचित मार्ग में निर्गुण ब्रह्म की उपासना की वही निर्गुण ब्रह्म की सगुण साकार रूप में भगवान शिव, माता पार्वती, विघ्न विनाशक गणेश और भगवान विष्णु आदि के भक्ति रस को पूर्ण स्रोतो की रचना करके उनकी उपासना कि। इस तरह शंकराचार्य जी को सनातन धर्म के पुनः स्थापित और प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है।
उनका दृढ़ विश्वास था कि जीव की मुक्ति के लिए ज्ञान का होना बेहद आवश्यक है। शंकराचार्य जी का जीवन भले ही छोटी अवधि का था लेकिन छोटी सी उम्र में ही उन्होंने सनातन परंपराओ तथा आदि सनातन संस्कृति की व्यवस्थाओ को पुनः स्थापन करके वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना की। उनके द्वारा निर्धारित की गई व्यवस्था आज भी संतो और हिंदू समाज को मार्गदर्शन करती है।
भारतीय संस्कृति के विकास और संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है उन्होंने भारतीय संस्कृति व भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधने का सबसे महत्वपूर्ण काम किया था।