कृष्ण भक्ति के प्रमुख कवियो और लेखको में सूरदास जी एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुके हैं। आज से करीब 500 साल पहले श्री कृष्ण के भक्त सूरदास जी का जन्म हुआ था।हिंदू कैलेंडर के अनुसार वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को भगवान श्री कृष्ण के भक्त सूरदास जी का जन्म मथुरा के रुण रुणकता गांव में हुआ था। और अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार सूरदास जी का जन्म साल 1478 में हुआ था इस साल 2021 में सूरदास जी की जयंती 17 मई सोमवार के दिन मनाई गई। वे जन्म से ही दृष्टिहीन थे लेकिन इस बात की कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि वे जन्म से अंधे थे या नहीं थे। कुछ लोगो का यह भी कहना है कि वे जन्म से ही अंधे नहीं थे।
सूरदास जी दृष्टिहीन होने के बावजूद भी वह श्रीकृष्ण की अगाध आस्था करते थे। वह अपनी मन की आंखों से भगवान श्री कृष्ण को देख सकते थे उन्होंने जीवन पर याद भगवान श्री कृष्ण की भक्ति की थी और ब्रज भाषा में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया था। सूरदास जी भक्ति शाखा के कवियो में से एक महत्वपूर्ण कवि है सूरदास जी का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रामदास था सूरदास जी श्री कृष्ण का गुणगान करते हुए सूरसागर, साहित्य लहरी, सुरसावली, नल दमयंती, ब्यावलो जैसे कई महत्वपूर्ण रचनाएं की है जो आज भी लोगों में लोकप्रिय है और उनका बहुत ही महत्व है।
माना जाता है कि श्री वल्लभाचार्य जी सूरदास जी के गुरु थे उन्होंने ही सूरदास जी को श्री कृष्ण भक्ति की प्रेरणा दी थी उन्होंने ही उनका मार्गदर्शन किया था। वल्लभाचार्य जी ने ही सूरदास जी को श्री कृष्ण की लीलाओ का दर्शन कराया। और श्री नाथ जी के मंदिर में श्री कृष्ण जी के लीलाओ के गान का भार सूरदास जी को सौंपा था जिसके बाद से वे हमेशा कृष्ण लीलाओ का गुणगान करते थे।
कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने अपने भक्त सूरदास जी की भक्ति से प्रसन्न होकर उनको दृष्टि प्रदान प्रदान किए थे। फिर जब भगवान कृष्ण ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने उन्हें फिर से उनको दृष्टिहीन कर देने को कहा था। क्योंकि सूरदास जी अपने प्रभु श्री कृष्ण के अलावा और किसी को नहीं देखना चाहते थे। सूरदास जी अपने महान साहित्य कौशल के लिए जाने जाते हैं सूरदास जी अपने गीत, दोहे, कविताओ और भगवान श्री कृष्ण के भक्ति के लिए जाने जाते हैं जो दुनियाभर में प्रसिद्ध है।
सूरदास जी बचपन से ही साधु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे उन्हें गाने की कला वरदान के रूप में प्राप्त हुई थी। और वे जल्दी ही प्रेस में प्रसिद्ध भी हो गए कुछ दिनों में आगरा के पास गुऊघाट पर आकर रहने लगे। यहां वह जल्द ही स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हुए वहीं उनकी मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई थी, जिन्होंने उन्हें पुष्टिमार्गीय की दीक्षा दी और श्री कृष्ण जी की लीलाओं का दर्शन कराया।
कहा जाता है कि सूरदास जी को एक बार भगवान श्री कृष्ण के दर्शन प्राप्त हुए थे। वह भगवान श्री कृष्ण के भक्त थे कहते हैं जब सूरदास जी की मुलाकात वल्लभाचार्य से हुई थी तभी सूरदास जी उनके शिष्य बन गए थे। सूरदास जी के सामने वल्लभाचार्य जी ने भगवान श्री कृष्ण का गुणगान किया था जिसके बाद सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण की लीला में रम गए और वे भागवत के आधार पर कृष्ण की लीलाओ का गायन करने लगे थे। सुरदास जी का कृष्ण भक्ति से जुड़े कई लीलाएं और कथाएं प्रचलित हैं।

महाकवि सूरदास जी के भक्तिमय गीत हर किसी को मोहित करते हैं। कहा जाता है कि एक बार सूरदास कृष्ण की भक्ति में इतने डूब गए थे कि वह एक कुएं में जा गिरे, जिसके बाद भगवान कृष्ण ने खुद उनकी जान बचाई। और आंखो की रोशनी प्रदान की और फिर जब भगवान कृष्ण ने भक्त सूरदास जी से कुछ वरदान मांगने को कहा तो सूरदास जी ने उन्हें फिर से अंधे बना देने को कहा। फिर भगवान कृष्ण पूछने लगे कि वह भला ऐसा क्यों चाहते हैं तब सूरदास जी ने कहा कि मैं कृष्ण के अलावा अन्य किसी को देखना नहीं चाहता।
एक बार जब सूरदास जी गुरु वल्लभाचार्य जी के पास बैठकर कृष्ण भजन कर रहे थे तब गुरुजी मानसिक पूजा कर रहे थे। उस पूजा के समय नौकरी श्रीकृष्ण को हार नहीं पहना पा रहे थे। तब सूरदास जी ने उनके मन की बात समझ ली और बोल दिया कि हार की गांठ खोलकर भगवान के गले में डाले फिर गांठ लगा दें। इस तरह भगवान को हार पहना लेंगे इसके बाद गुरु वल्लभाचार्य जी समझ गए कि सूरदास पर भगवान श्री कृष्ण की विशेष कृपा है।
पुष्टिमार्ग की उपासना और सेवा प्रणाली का अनुसरण करते हुए सूरदास ने जीवनपर्यत पद की रचना की थी। नरसी, मीरा, विद्यापति, चंडीदास आदि भारतीय साहित्य के अनेक कवियो ने पद रचना किए लेकिन गीतिकाव्य में सूरदास का स्थान सर्वोच्च कहा जा सकता है। क्योंकि उनकी कविता अत्यंत लोकप्रिय हुई और उसे अद्वितीय रूप में साहित्यिक सम्मान मिला। सूर की काव्य प्रतिभा ने तत्कालीन शासक अकबर को भी आकृष्ट किया था और उसने उनसे आग्रह पूर्वक भेंट की थी और इसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। भावो की सूक्ष्म विविधता और अनेकरुपता तक उनकी सहज गति थी यह सूरसागर के कृष्ण की लीलाओ के चित्र को देखने से स्पष्ट हो जाता है। सूरसागर श्रृंगार और वात्सल्य के एक अद्वितीय कवि माने जाते हैं।
सूरदास की रचनाओ में पांच ग्रंथ माने जाते हैं जिनमें सूरसागर प्रधान और सबसे श्रेष्ठ है। सूरदास जी ने ब्रज मंडल के लोकगीतो संगीतज्ञ के शास्त्रीय पदो की और विद्यापति आदि के साहित्य गीतो की परंपराओं का ऐसा समन्वित विकास प्रस्तुत किया था कि उसका रोड रूप और सौंदर्य दर्शनीय होता था। स्नेह, ममता, वात्सल्य, प्रेम के जितने भी रूप मानवीय जीवन में होते हैं। किसी न किसी रूप में लगभग सभी का समावेश सूरसागर में प्राप्त होता है। सागर की तरह गहराई और विस्तार दोनो ही विशेषताए सूर के काव्य में मिलते हैं यानी कि उनकी रचना के साथ उचित तौर पर यह नाम संबंध हुआ है।
सूरदास जी अपने केवल 6 वर्ष की आयु में ही अपने माता पिता को अपनी शगुन बताने की विद्या से चकित कर दिया था। लेकिन उसके कुछ ही समय बाद वे घर छोड़कर अपने घर से चार कोस दूर एक गांव में जाकर तालाब के किनारे रहने लगे। सगुन बताने की विद्या के कारण ही जल्दी ही उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। श्री कृष्ण की भक्ति में ही सूरदास जी ने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया यह सूरसागर के रचयिता सूरदास जी की लोकप्रियता और महत्व की का ही प्रमाण है, कि आज भारतीय धर्म समाज में सूरदास जी आदर से एक अंधे भक्त गायक के नाम से प्रचलित है। महान कवियो के बीच सूरदास जी सच्चे कृष्ण भक्त कवि थे, उनकी रचनाए सत्य का अन्वेषण करके मूर्त रूप देने में समर्थ है।